Sunday, October 16, 2016

अध्याय-2, श्लोक-48

योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय ।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥ ४८ ॥
हे अर्जुन! जय अथवा पराजय की समस्त आसक्ति त्याग कर समभाव से अपना कर्म करो। ऐसी समता योग कहलाती है।
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हे अर्जुन! जो हमारे नियंत्रण से परे है 
तुम उस कर्म फल का मोह त्याग दो।
जय-पराजय से विचलित हुए बिना 
पूरे मनोयोग से तुम अपना कर्म करो।

कर्त्तव्य समझ जब किए जाए काम 
कर्म फल से रहती नहीं कोई ममता।
मन की हो जब समभाव की स्थिति 
बुद्धि-योग कहलाती है यह समता।।


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