न कर्मणामनारंभान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥ ४ ॥
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥ ४ ॥
न तो कर्म से विमुख होकर कोई कर्मफल से छुटकारा पा सकता है और न केवल संन्यास से सिद्धि प्राप्त की जा सकती हैं।
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कर्म का बंधन होता दुखदायी पर
कर्म न करने से बंधन नही मिटता।
फेर ले मुख कोई काम से अपने
तो भी उसे छुटकारा नही मिलता।।
छोड़छाड़ दे दुनिया के कर्म सारे
तो सफलता नहीं मिल जाती है।
हृदय फँसा हो जग में जब तक
संन्यास भी सिद्धि नहीं दिलाती है।।
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