तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ॥ ४१ ॥
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ॥ ४१ ॥
इसलिए हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! प्रारम्भ में ही इंद्रियों को वश में करके इस पाप के के महान प्रतीक (काम) का दमन करो और ज्ञान तथा आत्म-साक्षात्कार के इस विनाशकर्त्ता का वध करो।
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हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन तुम
सर्वप्रथम इंद्रियों को वश में करो।
इंद्रिया वश में हो जाए तब फिर
पाप के प्रतीक काम का दमन करो।।
यह काम ही है जो ज्ञान को ढकता
आत्म-साक्षात्कार में बाधक बनता।
इन पर भी विजय वो पा जाता जो
बलपूर्वक इन्हें समाप्त कर पाता।।
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