यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ५८॥
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ५८॥
जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को संकुचित करके खोल के भीतर कर लेता है, उसी तरह जो मनुष्य अपनी इंद्रियों को इन्द्रियविषयों से खींच लेता है, वह पूर्ण चेतना में दृढ़तापूर्वक स्थित होता है।
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अपने अंगों को कछुआ समय देख
जैसे समेटता और प्रकट करता है।
भाँप शत्रुओं को आसपास जिसतरह
अंगों को अपने भीतर खींच लेता है।।
वैसा ही वश जिसका हो इंद्रियों पर
जो विषयों से मन को खींच सकता है।
वही आत्मसंयमी दृढ़ संकल्प के साथ
सदा ही पूर्ण चेतना में स्थिर होता है।।
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