Monday, October 17, 2016

अध्याय-2, श्लोक-59

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते ॥ ५९ ॥
देहधारी जीव इन्द्रियभोग से भले ही निवृत्त हो जाय पर उसमें इन्द्रियभोगों की इच्छा बनी रहती है। लेकिन उत्तम रस के अनुभव होने से ऐसे कार्यों को बंद करने पर वह भक्ति में स्थिर हो जाता है।
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इंद्रियों को वश में कर ले जीव जब 
तब वह इन भोगों से तो बच जाए।
पर भोगने की इच्छा बनी रह जाती 
जो न जाने कब फिर से उभर आए।।

लेकिन जब जीव भक्ति का उत्तम रस 
जीवन में एक़बार जो अनुभव करता है।
तब तुच्छ रस की लालसा मिट जाती 
वह फिर इसी रस  में ही स्थिर रहता है।।

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