यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥ १७ ॥
किंतु जो व्यक्ति आत्मा में ही आनंद लेता है तथा जिसका जीवन आत्म-साक्षात्कार युक्त है और जो अपने में ही पूर्णतया संतुष्ट रहता है उसके लिए कुछ करणीय (कर्त्तव्य) नही होता।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥ १७ ॥
किंतु जो व्यक्ति आत्मा में ही आनंद लेता है तथा जिसका जीवन आत्म-साक्षात्कार युक्त है और जो अपने में ही पूर्णतया संतुष्ट रहता है उसके लिए कुछ करणीय (कर्त्तव्य) नही होता।
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किंतु कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो
अपनी आत्मा में ही आनंद पा लेते।
जिनका एक क्षण भी व्यर्थ न जाता
हर पल आत्म-साक्षात्कार को देते।।
कोई बाहरी लालसा न होती मन में
आत्मा में ही पूर्णतया संतुष्ट रहते हैं।
कोई कर्त्तव्य शेष नही बचता उनका
उनके लिए वही पर्याप्त जो वे करते हैं।।
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