आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥ ३९ ॥
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥ ३९ ॥
इसतरह ज्ञानमय जीवात्मा की शुद्ध चेतना उसके काम रूपी नित्य शत्रु से ढकी रहती है जो कभी भी तुष्ट नही होता और अग्नि के समान जलता रहता है।
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हे कुंती पुत्र! स्वभाव से तो जीव का
हे कुंती पुत्र! स्वभाव से तो जीव का
शुद्ध, चेतन व ज्ञान से भरा स्वरूप है।
पर उसकी शुद्ध चेतना पर अक्सर
चढ़ जाता काम का विकृत रूप है।।
जीव का यह काम रूपी नित्य शत्रु
तो एक प्रज्ज्वलित अग्नि होता है।
कितनी भी सामग्रियाँ डालो उसमें
पर वह कभी भी तुष्ट नही होता है।।
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