Monday, October 31, 2016

अध्याय-3, श्लोक-35

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌ ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥ ३५ ॥
अपने नियतकर्मों को दोषपूर्ण ढंग से सम्पन्न करना भी अन्य के कर्मों को भलीभाँति करने से श्रेयस्कर है। स्वीय कर्मों को करते हुए मरना पराये कर्मों में प्रवृत्त होने की अपेक्षा श्रेष्ठतर है, क्योंकि अन्य किसी के मार्ग का अनुसरण भयावह होता है।
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दूसरों के कर्त्तव्यों की नक़ल से बेहतर
कि करें हम अपने कर्त्तव्य का पालन।
दूसरों के कार्य में निपुणता से बेहतर
अपने कार्य का त्रुटिपूर्ण भी संचालन।।

दूसरों के पथ का अनुसरण करने से
संतुष्टि नही होती उल्टा भय होता है।
श्रेष्ठ कहलाता वह व्यक्ति जो अपने
कर्त्तव्य का पालन करते हुए मरता है।।

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