इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥ ३४ ॥
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥ ३४ ॥
प्रत्येक इन्द्रिय तथा उसके विषय से संबंधित राग-द्वेष को व्यवस्थित करने के नियम होते हैं। मनुष्य को ऐसे राग तथा द्वेष के वशीभूत नहीं होना चाहिए क्योंकि ये आत्म-साक्षात्कार के मार्ग के अवरोधक हैं।
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इंद्रियों और उनके विषयों के प्रति
जो आसक्ति और विरक्ति होती है।
वे सारी आसक्तियाँ व विरक्तियाँ
शास्त्रीय नियमों के अधीन होती हैं।।
भोग हमारे नियमित व नियंत्रित हो
वह हमें वश में कर नही नचा पाए।
वरना भोग की आधीनता व्यक्ति के
आत्म-ज्ञान पथ में बाधक बन जाए।।
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