Monday, October 24, 2016

अध्याय-3, श्लोक-16

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥ १६ ॥ 
हे प्रिय अर्जुन! जो मानव जीवन में इस प्रकार वेदों द्वारा स्थापित यज्ञ-चक्र का पालन नहीं करता वह निश्चय ही पापमय जीवन व्यतीत करता है। ऐसा व्यक्ति केवल इंद्रियों की तुष्टि के लिए व्यर्थ ही जीवित रहता है।
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जो व्यक्ति वेदों द्वारा निर्धारित किए 
नियत कर्मों का पालन नहीं करता।
हे अर्जुन! ऐसे लोगों का जीवन फिर 
निश्चय ही पाप कर्मों में ही गुज़रता।।

जीवन के बहुमूल्य क्षणों को जिसने  
क्षणिक इन्द्रिय सुख में व्यर्थ किया।।
जीवन को सार्थक करने का अवसर 
उसने अपने ही हाथों स्वयं गँवा दिया।।

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