Tuesday, October 18, 2016

अध्याय-2, श्लोक-61

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ६१ ॥
जो इंद्रियों को पूर्णतया वश में रखते हुए इन्द्रिय-संयमन करता है और अपनी चेतना को मुझमें स्थिर कर देता है, वह मनुष्य स्थिरबुद्धि कहलाता है।
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वेगवती इंद्रियों को वश में करके 
जो जीवन को संयमित कर लेता।
संसार के भटकन से समेट कर जो 
अपनी बुद्धि मुझने स्थिर कर देता।।

वह व्यक्ति ही इंद्रियों को जीतकर 
संसार से मोहित नही हो पाता है।
मुझमें अपनी चेतना प्रतिष्ठित कर 
वह संयमी स्थिरबुद्धि कहलाता है।।

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