Tuesday, October 18, 2016

अध्याय-2, श्लोक-70

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं 
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्‌ ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे 
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥ ७० ॥
जो पुरुष समुद्र में निरंतर प्रवेश करती रहनेवाली नदियों के समान इच्छाओं के निरंतर प्रवाह से विचलित नहीं होता और जो सदैव स्थिर रहता है, वही शांति प्राप्त कर सकता है, वह नहीं, जो ऐसी इच्छाओं को तुष्ट करने की चेष्टा करता हो।
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जैसे दृढ़ प्रतिष्ठा वाले पूर्ण समुद्र को  
नदियाँ विचलित किए बिना समाती।
उसी भाँति स्थिरबुद्धि पुरुष के मन में  
इच्छाएँ विकार उत्पन्न नही कर पाती।।

ऐसा प्रतिष्ठित प्रज्ञा वाले  मनुष्य ही 
जीवन में शांति का सुख ले पाते हैं।
वरना इंद्रिया को तुष्ट करने वाले तो 
जीवनपर्यन्त  अशांत ही रह जाते हैं।।

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