दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय ।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥ ४९ ॥
हे धनंजय! भक्ति के द्वारा समस्त गर्हित कर्मों से दूर रहो और उसी भाव से भगवान की शरण ग्रहण करो। जो व्यक्ति अपने सकाम कर्म-फलों को भोगना चाहते हैं, वे कृपण हैं।
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बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥ ४९ ॥
हे धनंजय! भक्ति के द्वारा समस्त गर्हित कर्मों से दूर रहो और उसी भाव से भगवान की शरण ग्रहण करो। जो व्यक्ति अपने सकाम कर्म-फलों को भोगना चाहते हैं, वे कृपण हैं।
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बुद्धि योग का पालने करते हुए
सारे निंदित कर्मों से तुम दूर रहो।
निष्काम कर्म की चेतना में रहकर
भगवद आश्रित हो तुम कर्म करो।।
हे धनंजय! ऐसी सम्यक् चेतना ही
सांसारिक बंधन से मुक्त कराती है।
फल भोगने की इच्छा है कृपणता
जो हमें यहाँ और अधिक फँसाती है।।
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