Wednesday, October 12, 2016

अध्याय-2, श्लोक-31

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥ ३१॥ 
क्षत्रिय होने के नाते अपने विशिष्ट धर्म का विचार करते हुए तुम्हें जानना चाहिए कि धर्म के लिए युद्ध करने से बढ़कर तुम्हारे लिए अन्य कोई मार्ग नही है। अतः संकोच करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
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क्षत्रिय होने के नाते करो विचार तुम  
क्या कहता है स्वधर्म  तुम्हारा अभी।
क्षत्रियों के लिए धर्म-युद्ध से बढ़कर 
और कोई धर्म हो सकता है क्या कभी?

ज्ञात रहे तुम्हें अपना कर्त्तव्य सदा ही 
युद्ध के अतिरिक्त अब कोई मार्ग नही।
त्याग दो अब संदेह व संकोच सारे 
अब युद्ध से पलायन है स्वीकार्य नही।।

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