यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥ १५ ॥
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥ १५ ॥
हे पुरुषश्रेष्ठ (अर्जुन)! जो पुरुष सुख तथा दुःख में विचलित नही होता और इन दोनों में समभाव रहता है, वह निश्चित रूप से मुक्ति के योग्य है।
********************************************************
आए जीवन में सुख की सुंदर घड़ी
या दुःख से भरे भीषण दिन आए।
जिस पुरुष को ऐसे दोनों ही समय
पल भर को विचलित न कर पाए।।
अच्छी-बुरी हर एक परिस्थिति में
जिसके मन का भाव समान है रहता।
हे अर्जुन! वह मनुष्य तो निश्चय ही
मुक्ति का परम अधिकारी है बनता।।
No comments:
Post a Comment