Tuesday, October 25, 2016

अध्याय-3, श्लोक-18

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥ १८ ॥
स्वरूपसिद्ध व्यक्ति के लिए न तो अपने नियत कर्मों को करने की आवश्यकता रह जाती है, न ऐसा कर्म न करने का कोई कारण ही रहता है। उसे किसी अन्य जीव पर निर्भर रहने की आवश्यकता भी नहीं रह जाती।
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न कर्म करने की आवश्यकता रहती 
न ही कोई कारण कर्म न करने का।
उन्होंने सीख लिया होता है तरीक़ा 
अपनी आत्मा में ही प्रसन्न रहने का।।

ऐसे पुण्य पुरुष जग में रहते फिर भी 
मुक्त रहते इस जग के सारे बंधन से।
किसी भी प्राणी पर निर्भर नही होते 
दूर ही रहते सांसारिक आलम्बन से।।

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