मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥ १४ ॥
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥ १४ ॥
हे कुंतिपुत्र! सुख तथा दुःख क्षणिक उदय तथा कालक्रम में उनका अंतर्धान होना सर्दी तथा गर्मी की ऋतुओं के आने जाने के समान है। हे भरतवंशी! वे इंद्रियबोध से उत्पन्न होते हैं और मनुष्य को चाहिए कि अविचल भाव से उनको सहना सीखें।
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जैसे सर्दी और गर्मी के ऋतुओं का
आना और जाना दोनों ही निश्चित।
समझ लिया जब इस प्रवर्त्तन को
तो चित्त हमारा नहीं होता प्रभावित।।
हे कुंतीनंदन! सुख-दुःख भी ऐसे ही
समय के साथ आते - जाते रहते हैं ।
कोई भी स्थिति सदा नही है रहती
ज्ञानी क्षणिक वेग में नहीं बहते हैं।।
जैसा इंद्रियों से हम अनुभव है करते
मन की वो दशा सुख-दुःख कहलाए।
मनुष्य का कर्तव्य यही है कि वो इन्हें
अविचल भाव से सहना सीख जाए।।
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