अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् ।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ॥ ४४॥
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ॥ ४४॥
ओह! कितने आश्चर्य की बात है कि हम सब जघन्य पापकर्म करने के लिए उद्यत हो रहे हैं। राज्यसुख भोगने की इच्छा से प्रेरित होकर हम अपने ही सम्बन्धियों को मारने पर तुले हैं।
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जिसका परिणाम है इतना भीषण
उस कार्य के लिए हम उताबले है।
कितना अचरज है कि हम लोग भी
यह जघन्य पापकर्म करने चले हैं।।
क्या मिलेगा इस विजय से हमें भला
हस्तिनापुर का राज्य और राज्य-सुख
इसके लिए हम सम्बन्धियों को मारे
इससे बड़ा और क्या हो सकता दुःख।।
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