अर्जुन उवाच
कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन ।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ॥ ४ ॥
कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन ।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ॥ ४ ॥
अर्जुन ने कहा-हे शत्रुहंता! हे मधुसूदन! मैं युद्धभूमि में किस तरह भीष्म तथा द्रोण जैसे पूजनीय व्यक्तियों पर उटल कर बाण चलाऊँगा।
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अर्जुन पूछे अपनी दुविधा प्रभु से
हे मधुसूदन आप ही बताओं हल।
देख हर तरफ़ संबंधियों को रण में
क्षीण हो रहा है मेरी बुद्धि औ बल।।
किस तरह अपने पूज्यपितामह पर
अपने तीक्षण बाणों से प्रहार करूँ।
सम्मुख खड़े हैं गुरु द्रोण स्वयं जब
कैसे प्रभु गुरु पर अपने मैं वार करूँ।।
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