गुरूनहत्वा हि महानुभावा-ञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुंजीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ॥ ५ ॥
ऐसे महापुरुषों को जो मेरे गुरु हैं, उन्हें मार कर जीने की अपेक्षा इस संसार में भीख माँग कर खाना अच्छा है। भले ही वे सांसारिक लाभ के इच्छुक हो, किंतु हैं तो गुरुजन ही! यदि उनका वध होता है तो हमारे द्वारा भोग्य प्रत्येक वस्तु उनके रक्त से सनी होगी।
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ये श्रेष्ठ पुरुष हैं, गुरुजन हैं हमारे
कैसे जीवित रहूँगा मैं इन्हें मारकर ?
इनके वध से तो बेहतर यही है प्रभु
कर लूँ निर्वाह मैं भीख ही माँगकर।।
सांसारिक लाभ की इच्छा हो उन्हें
पर हमारे लिए तो सदा श्रेष्ठ रहेंगे।
उनके रक्त से सनी विजय का भला
कैसे आजीवन हम सब भोग करेंगे।।
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