Wednesday, October 5, 2016

अध्याय-2, श्लोक-7

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः 
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे 
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्‌ ॥ ७ ॥
अब मैं अपनी कृपण-दुर्बलता के कारण अपना कर्त्तव्य भूल गया हूँ और सारा धैर्य खो चुका हूँ। ऐसी अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि जो मेरे लिए श्रेयस्कर हो उसे निश्चित रूप से बताएँ। अब मैं आपका शिष्य हूँ और आपका शरणागत हूँ। कृपया मुझे उपदेश दें।
***********************************************************
धीरज अब मुझसे धरा नही जाता 
कर्त्तव्य भी अपना समझ नही आता।
हावी है हृदय पर इस तरह दुर्बलता
कि कोई भी निर्णय मैं ले नही पाता।।

अब आपकी शरण में मैं आया प्रभु 
शिष्य समझ अपना आप स्वीकारे।
हित अपना मैं  समझ नहीं  पा रहा 
इस ऊहापोह से प्रभु आप ही तारे।।

No comments:

Post a Comment